माध्यावर्ष कृत्य

आश्वलायन गृह्यसूत्र में माध्यावर्ष नामक कृत्य के विषय में दो मत प्रकाशित किये गये हैं। नारायण के मत से यह कृत्य भाद्रपद कृष्ण पक्ष
की तीन तिथियों में, अर्थात् सप्तमी, अष्टमी एवं नवमी को किया जाता है।
दूसरा मत यह है कि यह कृत्य अष्टकाओं के समान ही है जो भाद्रपद की त्रयोदशी
को सम्पादित होता है। जबकि सामान्यत: चन्द्र मघा नक्षत्र में होता है। इस
कृत्य के नाम में संदेह है, क्योंकि पाण्डुलिपियों में बहुत से रूप
प्रस्तुत किये गये हैं। वास्तविक नाम, लगता है, माध्यवर्ष या मधावर्ष है
(वर्षा ऋतु में जबकि चन्द्र मघा नक्षत्र में रहता है)। विष्णु
ने श्राद्ध करने के लिए निम्नलिखित काल बतलाया है–(वर्ष में) 12
अमावस्याएँ हैं, 3 अष्टकाएँ, 3 अन्वष्टकाएँ, मघा नक्षत्र वाले चन्द्र के
भाद्रपद कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी एवं शरद तथा वसन्त ऋतुएँ। विष्णु. ने भाद्रपद की त्रयोदशी के श्राद्ध की बड़ी प्रशंसा की है। मनु का भी कथन है कि वर्षा ऋतु के मघा नक्षत्र वाले चन्द्र की त्रयोदशी को मधु
के साथ पितरों को जो कुछ भी अर्पित किया जाता है, उससे उन्हें असीम तृप्ति
प्राप्त होती है। ऐसा ही वसिष्ठ , याज्ञवल्क्य एवं वराह पुराण में भी पाया जाता है। हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र में माध्यावर्ष आया है, जिसे चौथी अष्टका कहा गया है और जिसमें केवल शाक का अर्पण होता है। अपरार्क ने भी इसे मध्यावर्ष कहा है। भविष्यपुराण
ने भी इस कृत्य की ओर संकेत किया है किन्तु यह कहा गया है कि मांस का
अर्पण होना चाहिए। ऐसा प्रतीत होता है कि यह प्राचीन कृत्य जो भाद्रपद के
कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को होता था, पश्चात्कालीन महालय-श्राद्ध का
पूर्ववर्ती है।
यदि आश्वलायन का मत कि हेमन्त एवं शिशिर में चार अष्टकाएँ होती हैं,
मान लिया जाए और यदि नारायण के मतानुसार भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी
से सम्पादित होने वाले माध्यावर्ष श्राद्ध को मान लिया जाए तो इस प्रकार
पाँच अष्टकाएँ हो जाती हैं। चतुर्विशतिमतसंग्रह ने भी यही कहा है। यह कहना
आवश्यक है कि अष्टका श्राद्ध क्रमश: लुप्त हो गया है और अब इसका सम्पादन
नहीं होता। उपर्युक्त विवेचन यह स्थापित करता है कि अमावास्या वाला
मासि-श्राद्ध प्रकृति श्राद्ध है, जिसकी अष्टका एवं अन्य श्राद्ध कुछ
संशोधनों के साथ विकृति (प्रतिकृति) मात्र हैं, यद्यपि कहीं-कहीं कुछ उल्टी
बातें भी पायी जाती हैं।
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