पितर लोग देवों से भिन्न थे। ऋग्वेद के 'पंचजना मम होत्रं जुषध्वम्' में प्रयुक्त शब्द 'पंचजना:' एवं अन्य वचनों के अर्थ के आधार पर ऐतरेय ब्राह्मण
ने व्याख्या की है वे पाँच कोटियाँ हैं, अप्सराओं के साथ गन्धर्व, पितृ,
देव, सर्प एवं राक्षस। निरुक्त ने इसका कुछ अंशों में अनुसरण किया है और अपनी ओर से भी व्याख्या की है। अथर्ववेदमें देव, पितृ एवं मनुष्य उसी क्रम में उल्लिखित हैं। प्राचीन वैदिक
उक्तियाँ एवं व्यवहार देवों तथा पितरों में स्पष्ट भिन्नता प्रकट करते हैं।
तैत्तिरीय संहिता
में आया है–'देवों एवं मनुष्यों ने दिशाओं को बाँट लिया, देवों ने पूर्व
लिया, पितरों ने दक्षिण, मनुष्यों ने पश्चिम एवं रुद्रों ने उत्तर।'
सामान्य नियम यह है कि देवों के यज्ञ मध्याह्न के पूर्व में आरम्भ किये
जाते हैं और पितृयज्ञ अपरान्ह्न में। शतपथ ब्राह्मण ने वर्णन किया है कि पितर लोग अपने दाहिने कंधे पर (और बायें बाहु के नीचे) यज्ञोपवीत
धारण करके प्रजापति के यहाँ पहुँचे, तब प्रजापति ने उनसे कहा- 'तुम लोगों
को भोजन प्रत्येक मास (के अन्त) में (अमावस्या को) मिलेगा, तुम्हारी स्वधा
विचार की तेज़ी होगी एवं चन्द्र तुम्हारा प्रकाश होगा।' देवों से उसने
कहा- 'यज्ञ तुम्हारा भोजन होगा एवं सूर्य तुम्हारा प्रकाश।' तैत्तिरीय ब्राह्मण ने लगता है, उन पितरों में जो देवों के स्वभाव एवं स्थिति के हैं एवं उनमें, जो अधिक या कम मानव के समान हैं, अन्तर बताया है।
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