अष्टकाओं के विषय में आश्वलायन, कौशिक, गोभिल, हिरण्यकेशी एवं बौधायन के गृह्यसूत्रों में विशद विधि दी हुई है। आपस्तम्बगृह्यसूत्र में उसका संक्षिप्त रूप है जिसे हम उदाहरणार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। एकाष्टका की परिभाषा देने के उपरान्त आपस्तम्बगृह्यसूत्र
ने लिखा है–'कर्ता को एक दिन पूर्व (अमान्त कृष्ण पक्ष की सप्तमी को)
सायंकाल आरम्भिक कृत्य करने चाहिए। वह चार प्यालों में (चावल की राशि में
से) चावल लेकर उससे रोटी पकाता है, कुछ लोगों के मत से (पुरोडास की भाँति)
आठ कपालों वाली रोटी बनायी जाती है। अमावस्या एवं पूर्णिमा के यज्ञों की
भाँति आज्यभाग नामक कृत्य तक सभी कृत्य करके वह दोनों हाथों से रोटी या
अपूप की आहुतियाँ देता है और आपस्तम्ब मंत्रपाठ का एक मंत्र
पढ़ता है। अपूप का शेष भाग आठ भागों में विभाजित कर दिया जाता है और
ब्राह्मणों को दिया जाता है। दूसरे दिन वह (कर्ता) 'मैं तुम्हें यज्ञ में
बलि देने के लिए, जो कि पितरों को अच्छा लगता है, बनाता हूँ' कथन के साथ
गाय को दर्भ स्पर्श कराकर बलि के लिए तैयार करता है। मौन रूप से (बिना
'स्वाहा' कहे) घृत की पाँच आहुतियाँ देकर पशु की वपा (मांस) को पकाकर और
उसे नीचे फैलाकर तथा उस पर घृत छिड़ककर वह पलाश की पत्ती से (डंठल के मध्य
या अन्त भाग से पकड़कर) उसकी आगे की मंत्र के साथ में आहुति देता है। इसके उपरान्त वह भात के साथ मांस आगे के मंत्रों के साथ आहुति रूप में देता है। इसके पश्चात् वह दूध में पके हुए आटे को आगे के मंत्र के साथ आहुति रूप में देता है। तब आगे के मंत्रों के साथ घृत की आहुतियाँ देता है। स्विष्टकृत के कृत्यों से लेकर पिण्ड देने तक के कृत्य मासिक श्राद्ध के समान ही होते हैं।
कुछ आचार्यों का मत है कि अष्टका से एक दिन उपरान्त (अर्थात् कृष्ण पक्ष
की नवमी को) ही पिण्ड दिये जाते हैं। कर्ता अपूप के समान ही दोनों हाथों से
दही की आहुति देता है। दूसरे दिन गाय के मांस का उतना अंश, जितने की
आवश्यकता हो, छोड़कर अन्वष्टका कृत्य सम्पादित करता है।'
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