कौशिकसुत्र
ने एक स्थल पर देव-कृत्यों एवं पितृ कृत्यों की विधि के अन्तर को बड़े
सुन्दर ढंग से दिया है। देव-कृत्य करने वाला यज्ञोपवीत को बायें कंधे एवं
दाहिने हाथ के नीचे रखता है एवं पितृ-कृत्य करने वाला दायें कंधे एवं बायें
हाथ के नीचे रखता है। देव-कृत्य पूर्व की ओर या उत्तर की ओर मुख करके
आरम्भ किया जाता है किन्तु पितृ-यज्ञ दक्षिणाभिमुख होकर आरम्भ किया जाता
है। देव-कृत्य का उत्तर-पूर्व (या उत्तर या पूर्व) में अन्त किया जाता है
और पितृ-कृत्य दक्षिण-पश्चिम में समाप्त किया जाता है। पितरों के लिए एक
कृत्य एक ही बार किया जाता है, किन्तु देवों के लिए कम से कम तीर बार या
शास्त्रानुकुल कई बार किया जाता है। प्रदक्षिणा करने में दक्षिण भाग देवों
की ओर किया जाता है और बायाँ भाग पितरों के विषय में किया जाता है। देवों
को हवि या आहुतियाँ देते समय 'स्वाहा' एवं 'वषट्' शब्द उच्चारित होते हैं,
किन्तु पितरों के लिए इस विषय में 'स्वधा' या 'नमस्कार' शब्द उच्चारित किया
जाता है। पितरों के लिए दर्भ जड़ से उखाड़कर प्रयुक्त होते हैं किन्तु
देवों के लिए जड़ के ऊपर काटकर। बौधायन श्रौतसूत्र ने एक स्थल पर इनमें से कुछ का वर्णन किया है। स्वयं ॠग्वेद ने देवों एवं पितरों के लिए ऐसे शब्दान्तर को व्यक्त किया है। शतपथब्राह्मण ने देवों को अमर एवं पितरों को मर कहा है।
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