अन्वष्टक्य का वर्णन आश्वलायन गृह्यसूत्र में इस प्रकार है–उसी मांस का एक भाग तैयार करके ,
दक्षिण की ओर ढालु भूमि पर अग्नि प्रतिष्ठापित करके, उसे घेरकर और घिरी
शाला के उत्तर में द्वार बनाकर अग्नि के चारों ओर यज्ञिय घास (कुश) तीन बार
रखकर, किन्तु उसके मूलों को उससे दूर रखकर, अपने वामांग को अग्नि की ओर
रखकर उसे (कर्ता को) हवि, यथा–भात, तिलमिश्रित भात, दूध में पकाया हुआ भात,
दही के साथ मीठा भोजन एवं मधु के साथ मांस रख देना चाहिए। इसके आगे
पिण्डपितृयज्ञ के कृत्यों के समान कर्म करने चाहिए। इसके उपरान्त मीठे खाद्य पदार्थ को छोड़कर सभी हवियों के कुछ भाग को मधु
के साथ अग्नि में डालकर उस हवि का कुछ भाग पितरों को तथा उसकी पत्नियों को
सुरा एवं माँड़ मिलाकर देना चाहिए। कुछ लोग हवि को गड्ढों में रखने की बात
कहते हैं। जिनकी संख्या संख्या दो से छ: तक हो सकती है। पूर्व वाले गड्ढों
में पितरों को हवि दी जाती है और पश्चिम वालों में उनकी पत्नियों को। इस
प्रकार वर्षा ऋतु के प्रौष्ठपद (भाद्रपद) की पूर्णिमा के पश्चात् कृष्ण
पक्ष में मघा के दिन यह कृत्य करना चाहिए और ऐसा करते हुए विषम संख्या पर
ध्यान देना चाहिए (अर्थात् विषम संख्या में ब्राह्मण एवं तिथियाँ होनी
चाहिए)। उसे कम से कम नौ ब्राह्मणों या किसी भी विषम संख्या वाले
ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए। मांगलिक अवसरों पर एवं कल्याणप्रद कृत्यों
के सम्पादन पर सम संख्या में ब्राह्मणों को खिलाना चाहिए तथा अन्य अन्य
अवसरों पर विषम संख्या में। यह कृत्य बायें से दायें किया जाता है, इसमें
तिल के स्थान पर यव (यव) जौ का प्रयोग होता है। अन्वष्टक्य कृत्य प्रत्येक तीन या चार अष्टकाओं के उपरान्त सम्पादित होता था, किन्तु यदि माघ में केवल एक ही अष्टका की जाए तब वह कृष्ण पक्ष की अष्टमी के उपरान्त किया जाता था।
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