श्राद्धकल्पलता ने मार्कण्डेयपुराण के आधार पर जो तर्क उपस्थित किये हैं,
वे संतोषजनक नहीं हैं और उनमें बहुत खींचातानी है। मार्कण्डेय एवं मत्स्य,
ऐसा लगता है, वेदान्त के इस कथन के साथ हैं कि आत्मा इस शरीर को छोड़कर देव
या मनुष्य या पशु या सर्प आदि के रूप में अवस्थित हो जाती है। जो अनुमान
उपस्थित किया गया है वह यह है कि श्राद्ध में जो अन्न-पान दिया जाता है, वह
पितरों के उपयोग के लिए विभिन्न द्रव्यों में परिवर्तित हो जाता है।
इस व्यवस्था को स्वीकार करने में एक बड़ी कठिनाई यह है कि पितृगण विभिन्न
स्थानों में मर सकते हैं और श्राद्ध बहुधा उन स्थानों से दूर ही स्थान पर
किया जाता है। ऐसा मानना क्लिष्ट कल्पना है कि जहाँ दुष्कर्मों के कारण कोई
पितर पशु रूप में परिवर्तित हो गये हैं, ऐसे स्थान विशेष में उगी हुई घास
वही है, जो सैकड़ों कोस दूर श्राद्ध में किये गये द्रव्यों के कारण उत्पन्न
हुई है। इतना ही नहीं, यदि एक या सभी पितर पशु आदि योनि में परिवर्तित हो
गये हैं, तो किस प्रकार अपनी सन्तानों को आयु, धन आदि दे सकते हैं? यदि यह
कार्य वसु, रुद्र एवं आदित्य करते हैं तो सीधे तौर पर यह कहना चाहिए कि
पितर लोग अपनी सन्तति को कुछ भी नहीं दे सकते।
No comments:
Post a Comment