पितरों की कल्पित, कल्याणकारी एवं हानिप्रद शक्ति पर ही आदिम अवस्था के
लोगों में पूर्वज-पूजा की प्रथा महत्ता को प्राप्त हुई। ऐसा समझा जाता था
कि पितर लोग जीवित लोगों को लाभ एवं हानि दोनों दे सकते हैं। आरम्भिक काल
में पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए जो आहुतियाँ दी जाती थीं अथवा जो
उत्सव किये जाते थे, वे कालान्तर में श्रद्धा एवं स्मरण के चिह्नों के रूप
में प्रचलित हो गये हैं। प्राक्-वैदिक साहित्य में पितरों के विषय में
कतिपय विश्वास प्रकट किये गये हैं। बौधायन धर्मसूत्र ने एक ब्राह्मण ग्रन्थ
से निष्कर्ष निकाला है कि पितर लोग पक्षियों के रूप में विचरण करते हैं।
यही बात औशनसस्मृति एवं देवल (कल्पतरु) ने भी कही है। वायु पुराणमें ऐसा कहा गया है कि श्राद्ध के समय पितर लोग (आमंत्रित) ब्राह्मणों में
वायु रूप में प्रविष्ट हो जाते हैं और जब योग्य ब्राह्मण वस्त्रों,
अन्नों, प्रदानों, भक्ष्यों, पेयों, गायों, अश्वों, ग्रामों आदि से
सम्पूजित होते हैं तो वे प्रसन्न होते हैं। मनु एवं औशनस-स्मृति इस स्थापना का अनुमोदन करते हैं कि पितर लोग आमंत्रित ब्राह्मणों में प्रवेश करते हैं। मत्स्यपुराण
ने व्यवस्था दी है कि मृत्यु के उपरान्त को पितर को 12 दिनों तक पिण्ड
देने चाहिए, क्योंकि वे उसकी यात्रा में भोजन का कार्य करते हैं और उसे
संतोष देते हैं। अत: आत्मा मृत्यु के उपरान्त 12 दिनों तक अपने आवास को
नहीं त्यागती। अत: 10 दिनों तक दूध (और जल) ऊपर टांग देना चाहिए। जिससे सभी
यातनाएँ (मृत के कष्ट) दूर हो सकें और यात्रा की थकान मिट सके (मृतात्मा
को निश्चित आवास स्वर्ग या यम के लोक में जाना पड़ता है)। विष्णु धर्मसूत्र
में आया है–"मृतात्मा श्राद्ध में 'स्वधा' के साथ प्रदत्त भोजन का पितृलोक
में रसास्वादन करता है; चाहे मृतात्मा (स्वर्ग में) देव के रूप में हो, या
नरक में हो (यातनाओं के लोक में हो), या निम्न पशुओं की योनि में हो, या
मानव रूप में हो, सम्बन्धियों के द्वारा श्राद्ध में प्रदत्त भोजन उसके पास
पहुँचता है; जब श्राद्ध सम्पादित होता है तो मृतात्मा एवं श्राद्धकर्ता
दोनों को तेज़ या सम्पत्ति या समृद्धि प्राप्त होती है।
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